Saturday, July 14, 2007

जयपुर की गर्मी के

कितना अच्छा लगता है
जयपुर की सड़कों पर
जाना
रोज टहलने
गरमी के मौसम में तड़के

थोड़े से अंधियारे में
सड़क किनारे
बिछी खाट पर
सोते हैं जन
रंग बिरंगी कथरी ओढ़े
टुकड़ों-टुकड़ों गुथी कला के
सहज फलक से

धीमे-धीमे बहती है पुरवा
अमलतास के
स्वर्ण घुन्घुरुओं को झनकाती
खिले हुए
गुलमोहरों से ढकी
हलचल रहित स्तब्ध वधूटी जैसी
निर्मल सड़कें
शांत !!

घने यातायातों से दूर
ऊँट गाड़ी का सहज गुजरना
धीरे-धीरे
झरती हुई नीम के नीचे
कितना अच्छा लगता है
सूरज के आने से पहले
घने शहर में
कोलाहल भर जाने से पहले।

सोजन्य से - आलोक जैन के "दोस्त" की ओर से

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