हम थे तुम थे साथ नदी थी
पर्वत पर आकाश टिका था
झरनों की गति मन हरती थी
रुकी रुकी कोहरे की बाहें
हरयाली की शीतल छांहे
रिमझिम से भीगे मौसम में
सन्नाटे की धुन बजती थी
मनिमुक्ता से सांझ सवेरे
धुली धुली दोपहर को घेरे
हाथों को बादल छूते थे
बूंदों में बारिश झरती थी
गहरी घाटी ऊँचे धाम
मोड़ मन्नतें शालिग्राम
झरझर कर झरते संगम पर
खेतों से लिपटी बस्ती थी
गरम हवा का नाम नहीं था
कहीँ उमस का ठाम नहीं था
खेतों सजी धान की फसलें
अम्बर तक सीढ़ी बुनती थी
सौजन्य से: आलोक जैन के अच्छे मित्र
Monday, July 2, 2007
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2 comments:
aree wah guptaji
aapne seekh liya
meri shubhkamnayen
really after reading this kavita i could recall the days at jaipur, we i mean, me my dad brother and neighbours used to go for morning walk, we used to live near bajaj nagar and it used to be almost last point and hamare ghar ke baat khet hote the, i felt same way after reading this. she wrote this in 1990 and i left jaipur in 1983 when we joined MBM
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